पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८९

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मनुस्मृति भाषानुवाद विचारणीय है कि दो वर्ष से न्यून आयु वाले बच्चों का गाढ़ना क्यों कहा, जब कि दाह संस्कार वेदोक्त है। इस में एक पक्ष यह भी ७० वे श्लोक मे किया है कि जिस का नामकरण हो गया था जिस के दांव निकल आये उस के बाहादि संस्कार करने चाहिये। यथार्थ मे बाह करने का तात्पर्य यही है कि मरने वाले देवी ने संसारयात्रा मे मल मंसर्ग से शरीर पर बहुत बड़ी मलिनता संह करली है। वह मलिनता अन्य जीवते प्राणियो को वायु में परिणत होहो कर दीर्घकाल तक रोगादि का हेतु न हे।। परन्तु संसार के सभी कार्य प्रारम्भ काल में नहीं के समीप र होते हैं। ऐसे ही गर्भस्थिति से नामकरण तक उस मलिनता का संग्रह उस के शरीर मे बहुत कम होता है। कहीं न कही मयांदा रखनी ही पड़ती है। यहां से आगे दाहसंस्कार द्वारा निवारण करने योग्य मलिनता का प्रारम्भ है । इस से पूर्व सूक्ष्म रूप पृथिवीस्थ अग्नि ही उसे भस्म करने मे समसममा गया। और जन्मते बच्चे का दाहविधान करते तब भी यह शङ्का रह हो जाती कि गर्भपात वा गर्भस्राव का दाह क्यो न करना चाहिय । इस से आगे वीर्य- पात मात्र के दाह की भी आशङ्का होती। इस लिये शास्त्रकार ने दाह की योग्यता की अवधि निनत करकं मर्यादा स्थापित करदी है। विशेष स्वयं बुद्धिमान् विचार सकते हैं। मृत्यु में शोक भो एक प्रकार की भीतरी मलिनता अशौच का कारण है )||७|| सनियावेप चे कल्पः शाबाशौचस्य कीर्चितः । असनिघावयं यो विधिः सम्बन्धिवान्धवैः ।।७४॥ यह समीप रहने में मृतसम्बन्धी आशौचका विधान कहा और विदेश रहने मे उस के सम्बन्धी बांधव आगेकहे अनुसार आशौच विधान जाने ||७४॥