पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९०

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पंचमोऽध्याय विगतं तु विदेशव्यं गायायो निर्दशम् । यच्छेपं टनगरम्य तावदेवाशाचर्भवेत् ॥७५|| विदेश मं मग और शान पूरे न तो मुननं पर जितने दिन १ दिन में शपती उतने दिन श्राशीच रहे । (७५ वें के आगे एक पुग्नक में यह शलाक प्राविक है :- [मामत्र त्रिगत्रं स्यात्परमासे पक्षिणी तथा । अहम्तु नवमादर्षागृर्ष स्नानेन शध्यति ।। । तीन माम बीतने पर सुने ना ३ रात्रि तक आगौर और छ माल बीतने परशा दिन और मास मीना १ दिन नथा इन के पत्रान्लान मात्र में शुद्ध होना) अतिक्रान्त दशाहे च विगतमाचर्भवेत् । मंवत्सरे व्यनीनं तु पृष्टययापा विशुद्ध पनि ॥७६॥ और दश दिन व्यतीत ठान के अनन्तर सुन तो तीन दिन आशौच रहे परन्तु एक वर्ष धीत गया हो तो म्नान करने में दी शुद्ध शे जाता है | निदेश जातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च । मवासा जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः ||७|| बाले देशान् स्थे च पृथक् पिण्डे च मंस्थिते । सवासा बलमा जुत्य साएव विशुद्धयति । ७|| दश दिन हो जाने पर नातिमाण या पुत्र का जन्म सुन कर मनुष्य पचैल स्नान करके शुद्ध होता है ॥४७॥ सगात्र बालक देशान्तरम्य नया श्रमपिण्ड का मरण (सुन ) सचैल स्नान