पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९१

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२८८ मनुस्मृति भाषानुषाद 1 करने से उसी समय शुद्ध हो जाता है ||८ अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनमरणजन्मनी । तावत्स्यादशुचिविप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् ॥७६।। त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्य संस्थिते सति । तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रमिति स्थितिः ।। दशाह के बीच यदि पुनः किसी के मरने वा उत्पन्न होने से आशौच होजावे तो विप्र तब तक शुद्ध न होगा जब तक कि उस के दश दिन पूरे न हो जायें ॥७९॥ आचार्य के मरने में शिष्य को तीन दिन आशौच रहता है और आचार्य लड़के या स्त्री के मरने में एक दिन ॥८॥ श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रमशुचिर्मवेत् । मातुले पक्षिणी रात्रि शिष्यििग्वान्धवेषु च ॥८१॥ पते राजनि सज्योतिर्थस्य स्याद्विपस्थितः । अश्रोत्रिये वहः कृत्स्नमनूचाने तथा गुरौ ॥८२|| श्रोत्रिय के मरने मे तीन दिन और मामा, शिष्यः ऋत्विक और बांधवों के मरने में सूर्यास्त तक पाशौच रहे और जो भोत्रिय न हो तो सारा दिन और जिस ने पूर्ण वेदाध्ययन किया है। वा गुरु हो उस का भी शुध्येविप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धपति ।।३।। ब्राह्मण १० दिन में, क्षत्रिय १२ दिन में, वैश्य १५ दिन में, और शूद्र एक मास मे शुद्ध होता है । (८३ से आगे दो पुस्तको