पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९४

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पंचमोऽध्याय २९१ जाना है और जिसमे चिकनाई न हो उम के पर्श करने से आचमन ही से या गौ भूमि के स्पर्शस या सूर्य के दर्शन से पवित्र होता है। (यहां दो पुस्तकों में, "गां स्पृष्टा वीक्ष्य था रविम् पाठ भेदह । और मेघातिथि आदि छहो भाष्यकार "बालभन का अर्थ "स्पर्श करते हैं) । ब्रह्माचारी व्रत की समाप्ति पर्यन्त प्रेताटक न करें । समाप्ति के अनन्तर प्रेतोडक करें तो त्रिरात्रसे ही शुद्ध हो जावा है | वृथामंकरजातानां प्रवज्यासु च तिष्ठनाम् । आत्मनस्त्यागिनां चैत्र निवत विकक्रिया ||३|| पापण्डमाश्रितानां च चरन्तीनां च कामतः । नर्मम द्रुहां चैत्र सुरापीनां च योपिताम् ।।६० ।। बुया वर्णसवरा, सन्यासियों और आत्मघातियों की उड़क किया आवश्यक नहीं ।।८९॥ पापरिएडयो, बैरिणियां और गर्भपान पतिघात- सुसान करने वाली स्त्रियों की (उदकक्रिया नमर)।९। प्राचार्य स्वमुराध्याय पितरं मातरं गुल्म् । निहत्य तु प्रती प्रेतान बनेन वियुज्यते ॥१॥ दक्षिणेन मां शद्र पुरद्वारेण निहरेत् । पश्चिमाचमातु यथायोग द्विजन्मनः ॥१२॥ पाने प्राचार्य पार पिना माना तथा गुग के प्रेतकृत्य करने से ब्रह्मचारी का व्रत भङ्ग नहीं होता ॥११॥ शूद्रक मुद्दे नगर के दक्षिणद्वार से और वैश्य के पश्चिम, क्षत्रिय के उत्तर और बामण के पूर्व से निकाले ॥२॥ गज्ञामवदापोस्त व्रतीनां न च सत्रिणाम् ।