पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९५

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२९२ मनुस्मृति भाषानुवाद ऐन्द्र स्थानमुपासीना ब्रह्मभूताहि ते सदा ॥१३॥ राज्ञा माहात्मिके स्थाने सद्यः शोचं विधीयते । प्रजानां परिक्षार्थमासनं चात्रकारणम् ॥६॥ राजा और ब्रह्मचारी व चान्द्रायणादि ब्रत करने वाले और यज्ञ करने वालों को आशौच नहीं लगता । क्योंकि ये इन्द्र के पद पर बैठे हुवे और सा निष्पाप हैं ।(इन्न पद शुद्ध स्थान का नाम है जैसा कि “इन्द्र शुद्धो न आगहि० इत्यादि । और इन्द्र शुद्धोहि नो रयिम०" इत्यादि सामवेद उत्तरार्चिक १२।३।२।३मे लिखा है) ॥३॥ माहात्मिक राजपद में स्थित राजा को उसी समय पवित्र कहा है (अर्थात् राज्य से भ्रष्ट क्षत्रियो को सद्यः शुद्धि नहीं है) प्रजा की रतार्य न्यायासन पर बैठना इस मे कारण है ।।९४॥ डिम्बाहवहतानां च विद्युतापार्थिवेन च । गोब्राह्मणस्य चैवार्थे यस्यचेच्छति पार्थिवः ॥६॥ सामाग्न्यनिलेन्द्राणा विधाप्पत्यार्यमस्य च । अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नपा ॥१६॥ विना शस्त्र की लड़ाई में और बिजली से तथा राजाज्ञान फांसी से और गौ ब्रह्मण की रक्षा के लिये मरे हुवे का और जिस को राजा अपने कार्य के लिये चाहे उसका (तत्काल शौच कहा है) |१५||चन्द्र अग्नि, सूर्य, वायु, इन्द्र कुवेर, वरुण और यम इन आठ लोकपालो का शरीर राजा धारण करता है (अर्थात् राजा में लोकपालनार्थ ये आठ गुण रहते है, जो दिव्य है) ॥९॥ लोकेशाधिष्ठितो रोजा नास्याशीच विधीयते । शौचाशौचं हि मानां लोकेशप्रमवाप्ययम् ॥१७॥