पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९६

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पंचमोऽध्याय २९३ उग्रतैरहवे शस्त्रैः क्षत्रधर्म हतस्य च । सद्यः तिष्ठते यज्ञस्तथा शौचमिति स्थितिः ॥ell इन्यादि ८ लोकपालो के स्थान पर रहता है इसलिये राजा को प्राशोच नहीं कहा, क्योकि मनुष्यों का शौच और आशौच लोक- पालो से उत्पन्न और नष्ट होता है ।।९७॥ संग्राम में उद्यत शन्त्री से क्षात्रधर्म से (दला लकड़ी से नहीं किन्तु) सामने लड़ाई में मरे का यज्ञ उसी समय समाप्त होता है और शौच भी तत्काल हो जाता है ।।१८॥ वित्र शुद्धयत्यपः स्पृष्ट्वा पत्रिक बाहनायुधम् । वेश्या प्रतादं रश्मीन्वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः ॥६६॥ एतद्वो महितं शौच सपिण्डेष द्विजोत्तमा । श्रमपिण्डेषु सर्वेषु प्रेतशुद्धि निवेधित ११००॥ प्रेतक्रिया करके ब्राह्मण जल को स्पर्श कर, क्षत्रिय शस्त्र और वाहन आदि को तथा वैश्य हांकने के ठण्डे वा लगाम को और शुद्ध लाठी को छके शुद्ध होता है (अर्थात् आशौच समाप्ति के दिन इने इनको थे २ वस्तु छुनी चाहिये यह रीति है) ।।१९।। हे द्विज हो यह सपिण्डो में आशौच विधान तुम से कहा और असपिण्डो मे प्रेत शुद्धि का विधान (आगे) सुनों ॥१००। असपिण्डं द्विजं प्रतं विप्रोनिहत्य बन्धुवत् । विशुद्धपतित्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान् ॥१०१|| यद्यानमत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति । अनदन्ननमन्हैव न चेत्तस्मिन्गृहे वसेत् ॥१०२॥ $