पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२९८

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पंचमोऽध्याय २९५ की इन्चासाशीच) मत्र में श्रेष्ठ कहा है । यदि अर्थशौच नहीं तो मृत्तिकादि मे कुछ शुद्धि नहीं होती जा अर्थ मे शुद्ध है वही है चान्त्या शध्यन्तिविद्वांसा दानेनाकार्यकारिणः । प्रच्छन्नपापा जयेन तपसा वेदवित्तमा ॥१०७॥ मुत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति । रजसा स्त्री मनोदुष्टा संयासेन द्विजोत्तमः ॥१०८|| ज्ञमा से विद्वान शुद्ध होते हैं। जो यज्ञादि क्रिया नहीं कर समन वे दान सं. गुप्त पार वाले जप से और उत्तम वेद के जानने वाले नप स (शुद्ध होते हैं) ।।१०७॥ मलयुक्त अशुद्ध पातु मृत्तिका और जलसे शुद्ध होती है । नदी वगसे शुद्धहोती है। मनमे पित्त स्त्री रजस्वला होनेपर और ब्राह्मण त्यागसे (शुद्ध होता है)॥१०॥ अद्विर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति । विद्या तपोम्यां भृतात्मा बुद्धिज्ञानेन शुध्यति ॥१०॥ एप शौचस्य का प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः । नानाविधानां द्रव्याणां शुद्धः श्रृणुतनिर्णयम् ॥११० ॥ पानी से शरीर शुद्ध होते हैं। मन सत्य बोलने से शुद्ध होता है। सूक्ष्म लिङ्ग शरीर से युक्त जीवात्मा विद्या और तप से (शुद्ध होता है) ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है ॥१०९|| यह तुमसे शरीर शुद्धि का निर्णव कहा । अव नाना प्रकार के द्रव्या की शुद्धि का निर्णय सुना ॥११॥ तैजसानां मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च ।