पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३००

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पंचमोऽध्याय २९७ से और लकड़ियों के वर्तनादि की छीलनेसे शुद्धि होती है ॥११५|| परन्तु यज्ञकर्म मे यज्ञपात्रों की हाय में मार्जन द्वारा और चमसौ तथा ग्रहा- संडासी वा चिमटों को धान से शुद्धि होती है ॥११॥ चरूणांच कस्नु वाणां च शुद्धिरुप्णेन वारिणा । स्पशूर्पशकटानां च मुसलालूखलस्य च ॥११७॥ अधिस्तु प्रोचणं श च बहना धान्यवाससाम् । प्रक्षालनेन वल्पानामशः शौच विधीयते ॥११॥ यज्ञ पात्र चरु, संच, व, म्पय. शूर्प, शकट, ओखली और मृसल की शुद्धि गरम पानी से होती है ॥१७॥ बहुत्त धान्या और कपड़ो की शुद्धि पानी के प्रोक्षण में और थोड़े हो तो धोने से कहीं है। (इस से आगे दो पुस्तका में एक श्लोक अधिक पाया जाता है- (त्र्यहकृतशौचानां तु घायसी शुद्धिरिष्यते । पर्युक्षणापनाद्वा मलिनामांतधावनात् ।।) ३ दिन में जिसकी शुद्धिकही है, उन मूनवालकों के वस्त्र उन की आयु के अनुसार शुद्ध होते हैं किन्हीं को छिड़कने, किन्ही की धूपदेने और किन्हीं मैले वात्राको अत्यन्त धुजानेसे शुद्विजाना११८॥ चेलवचर्मणां शुद्धिवेदलाना तथैव च । शाकमूलफलाना च धान्यवच्छुद्धिरिष्यते ॥११॥ कौशेयाविकयोरूपैः कुतपानामरिष्टकैः । श्रीफलेरंशुपट्टानां चौमाणा गौरसर्पपैः ॥१२०॥ चमड़ों और चटाइयों की शुद्धि वस्त्रयन शेती है और शाक मूल फलों की शुद्धि धान्य के समान चाही गई है ॥११॥ रेशमी