पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३०२

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- पंचमोऽध्याय यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद्गन्धो लेपश्च तत्कृतः। तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु ।।१२६॥ पक्षी ने खाया है। और गाय ने सूचा हिी वा पैर से कुचला हो तथा जिस के ऊपर छींक दिया हो और जो कीड़ो तथा केशों से दृपित हुवा हो वह (स्थान) मृत्तिका डालने से शुद्ध होता है ॥१२५|| अमेध्य (विष्ठादि ) के लेप से समस्त द्रव्यशुद्धियो में जब तक उस का गन्ध और लेप रहे तब तक पानी और मिट्टी से उस को धावे ॥१२॥ त्रीणदेवाः पवित्राणि चानणानामकल्ययन् । अदृष्टमद्धिनिर्णितं यच वाचा प्रशस्यते ॥१२७॥ आपःशुद्धाभूमिगता बैतृष्ण्यं यासु गार्भवेत् । अव्याप्ताश्वेदमेध्येन गन्धवर्णरसान्विताः ॥१२८॥ देवतों ने ब्राह्मणों के तीन पदार्थ पवित्र कहे हैं। एक अदृष्ट दूसरा जो पानी से धो लिया हो, तीसरे (ब्राह्मण की) वाणी से जो प्रशंसित हो ॥१२७॥ जिम पानी में गाय की प्यास निवृत्त हो सके अमेध्ययुक्त न हो तथा गन्ध वर्ण रस से ठीक हो ऐसा पानी भूमि में शुद्ध है ।।१२८॥ नित्य शुद्धः कारुहस्तः परये यच्च प्रसारितम् । ब्रह्मचारिग मैच्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः ॥१२॥ "नित्यमास्य शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने । प्रनवे च शुचिर्वत्सः श्वा मृगाहणे शुचि ॥१३०॥" फारीगरों का हाथ और दुकान में बेचने को जो रक्खा है,