पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३०४

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पंचमाध्याय ३०१ रजोर्वायुगग्निश्च म्प” मेध्यानि निर्दिशेत् ॥१३३॥ विणकुत्रात्मर्गशुन्यर्थ महादियमर्थवन् । दैहिकानांमलानां च शुद्धिषु द्वादशस्वपि ॥१३४॥ मतिका और उएन हुये छोट र जलविन्दु और छाया, गाय, घोड़ा. सूर्य की किरण. अनि, भूमि, पवन और अग्नि , इन मव का पर्श में पवित्र ममम ॥१२॥ मल मूत्र के त्याग और देह के बारहों मलो की शद्धि के लिय उतनी मुनिका और जल लंबे जितने से दुर्गन्यादि मिट सके ॥१३४|| बमाशुक्रममङ्मज्जामृत्रविड्माणकर्णविट् । लेप्माश्रु दृपिका स्वंदा द्वादशेते नृणां मलाः ॥१३॥ एका लिङ्ग गुदे तिसग्नधैकत्र कर दश । उभयो सप्त दातव्या महः शुद्धिमभीप्सना ।।१३६।। चर्चा-यमा, वीर्य, रक्त, मना, मत्र विष्टा नाक का मैल, कान का मैल, कफ, ओम् , आग्न की कीचड और पसीना, ये मनुष्यों के १२ मल हैं ॥१३५॥ शुद्वि को चाहने वाला मूत्र की जगह एक बार, गुना में तीन बार, बायें हाथ में दश वार तथा शानी हाथों में मान वार मिट्टी लगावे (दा पुस्तकों में 'तथा वाम करे दश' पाठ है)||१३ एतच्चीचं गृहम्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणस्त्राद्वनस्थानां यनीनां तु चतुर्गुणम् ॥१३७॥ रुत्या सूत्र पुरीपंवा ग्वान्याचान्त उपस्पृशेत् । वेदमध्येप्यमाणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा ॥१३॥