पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३०५

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३०२ मनुस्मृति भाषानुवाद यह शुद्धि गृहस्थों की है। ब्रह्मचारियों की इस से दूनी और वानप्रस्थों की, तिगुनी तथा यतियो की चौगुनी है ।।१३वा मल सूत्र करने के पश्चात् शुद्ध होकर आचमन करे और चतरादि का जल से सर्श करे । वेद पढ़ने के पूर्व समय तथा भोजन के समय सदा आचमन करे ।।१३८॥ त्रिराचामेदपः पूर्व द्विअमृज्यात्तना मुत्रम् । शारीरं शौचमिच्छन्हि स्त्रीशूद्रस्तु सकृत्सकृत् ।१३६] शूद्राणां मासिकं कार्य अपनं न्यायवर्शिनाम् । वैश्यवच्छौचकल्पच द्विजाच्छिष्टं च भोजनम् ॥१४०॥ शरीर के पवित्र करने की इच्छा वाला भोजनोत्तर तीन बार आचमन करे फिर दो बार मुख धोवे और शूद्र तथा स्त्री एक बार ||१३९।। न्याय पर चलने वाले शूदो का मुण्डन महीने भर मे कराना और सूतकादि में वैश्य के तुल्य शौचविधि वथा द्विजो के भोजन से शेष भोजन है ॥१४॥ नोच्छिष्टं कुर्वते मुख्या विप्र पोऽङ्क यतन्ति था। न श्मथ व गतान्यास्यान दन्तान्तरधिष्ठितम् ॥१४॥ मुख से निकले जो थूक के छोटे शरीर पर गिरते हैं वे और मुख में गई हुई मूक और दांत के भीतर रहने वाला अन्न अफ नहीं कहाता ॥१४१॥ (इससे आगे एक पुस्तकमे रश्लोक अधिक हैं- नाश्यं मुखतामध्यं गावा मेध्याश्च पृएतः । बामणाः पादतामेव्याः स्त्रियामेध्याश्च सर्गतः ॥ गौरमेध्या मुखे प्रोक्ता अजा मेध्या ततः स्मृता । 1