पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३०८

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पंचमोऽध्याय ३०५ और पति मरने पर पुत्रों के अधीन रहे । म्बी कभी रहे (कहाँ २ "पितुहे पाठ है) ।।१४८॥ पित्रा भ; सुत्तोपि नेच्छेद्विरहमात्मनः । एषाहि विरहेण स्त्री गौं कुर्यादुमे कुन्तै १४६॥ सदा प्रहृष्टया माव्यं गृहकार्येषु दचया । सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥१५०|| पिता मत्ता. पुत्र इन से अलग होना न चाहे क्योंकि इन मे अलग होने से स्त्री दानो कुतो की निन्दित करती है ॥१४५।। सईदा प्रसन्न चित्त और घर के कामों में चतुर तथा घर के वर्तन मांडे ठीक करक रक्खे और व्यय करने में स्त्री सर्वदा हाथ सकाड़े रहे ॥१५॥ यस्मै दयास्पितात्वेनां भ्राताचानुमते पितुः । तं शुश्रूपेतजीवन्त संस्थितं च न लंधयेत् ॥१५१॥ मङ्गतार्य वस्त्ययनं यज्ञश्चात प्रजापतेः । प्रयुज्यने विवाहेषु प्रदानं स्वाम्यकारणम् ।।१५२॥ पिता या तिना को अनुनति से भाई जिम (भयंत्रत पति) को इसे देवे उसकी जीवते की सेवा करें और मरने पर व्यभिचारादि न करे ॥१५१॥ इनका जो स्वत्ययन और प्राजापन्य हेम विवाहमे किया जाता है वह मालार्थ है। कन्यादान (पतिक ) स्वामी होने का कारण है ॥१५॥ अनतावृतवाले च मन्त्रसंस्कारकृत्पतिः । सुखस्य नित्यं दातेह परलोके च योषितः ॥१५३।। V