पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३०९

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मनुस्मृति मापानुवाद वशोत: कामवृत्ता वा गुणैर्ग परिवर्जितः । उपचर्यः स्त्रिया माव्या सततं देववत्पति॥१५॥ मन्त्र संस्कार (विवाह) करने वाला पति ऋतु और अनूतु में सदा सुख दन वाला हे उसकी सेवा से यहा और परलोक में भी सुख प्रान होता है ।।१५। पति शीलरहित कामी तथा विद्यादि गुणों से होन भी हो तथापि अच्ची स्त्री को देववत् श्राराधन योग्य है। (१५४ के आगे भी ३ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक है:- (दानप्रमृति या तु स्वादावदायुः पतिव्रता । मत लेकिन त्यजति यथैवारुन्धती तया ॥ जो स्त्री पिता आदि ने जव कन्यादान किया उस समयसे सारी श्रायु पतित्रता रहती ह वह अरुन्धती (तार) के समान मलिक नही त्यागती ||१५४॥ नास्त स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषितम् । पति शुश्रूपते येन तेन स्वर्गे महीयते ॥१५॥ स्त्रियोका अलग कोई यज्ञ नहीं, न व्रत न उपवास केवल एक पति की शुपा सेम्बर्ग मे पूज्या हो जाती है । (इसके आगे का एक श्लोक ३ पुस्तको मे मिलता है.- (पत्यौ जीपति यातु स्त्री उपवास व्रतं चरेत् । आइप्यं घाधते मर्नु नरकं चैत्र गच्छति ॥ जो स्त्री पति के जीवते भूखी रहने वाला प्रत करती है, वह पति की आयु को वाधा पहुंचाती और नरकको जाती है) ॥१५५||