पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१६

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पटाऽध्याय ३१३ चैतानिक व जुहुयादग्निहोत्रं यथाविध । दर्शमस्कन्दय पर्न पौरमासं च योगनः ॥६ अक्षेष्टवाग्रायणं चैव चातुर्मास्यानि चाहन् । उत्तरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमय च ॥१०॥ (गाई पाल्य फण्ड में के अग्नि को श्राहवनीय दक्षिणाग्नि में मिलाने का नाम विनान है) उमम वैतानिक अग्निहोत्र यथाविधि करे और समय पर दर्श पौर्णमास मुष्टियों का न हटने दे || नक्षत्रेष्टि और प्रामायणष्टि तथा चातुर्मान्य और उत्तरायण दक्षिणायन में भी विहिन (श्रीतकर्म) करें भिधातिथि ने-दर्शष्टा- यामहणम् पाठ माना है। तथा दो पुस्तकोंमें "दक्षिणायनमेव व और ७ पुस्तका में "दशम्यायनमेव च । पाठ है) 1॥१०॥ वासन्तशास्दैमध्यन्यन्दः स्वयमा तः । पुरोडाशाश्चचत्र विधिवनि पत्पृथक् ॥११॥ देवताम्यस्तु सद्धत्वा वन्य मेध्यतरं हविः । शेपमात्मनि गीत लवणं च स्वयंकृतम् ॥१२॥ अपने हाथ से लाये हुवे वसन्त और शग्द में उत्पन्न हुए पवित्र मुनियों के अन्त्रों से पुरोडाश और चर बना कर विधिवन होम करें ।।११॥ वन का उत्पन्न हुआ अति पवित्र हवि हाम करने से शेष अपना बनाया अन्न लवण मिलाकर भोजन कर ॥१६॥ स्थलजीदकशाकानि पुष्पमूलफलानि च । मेध्यवृक्षोद्भवान्यद्यात्स्नेहांश्च फलसंभवान् ॥१३॥ वर्जयेन्मधुमांसं च भौमानि कवक्रानि च । भूस्तुणशिव कं चैव श्लेप्मातकफलानि च ॥१४॥