पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१८

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पाध्याय चान्द्रायणविधान; शुक्लकणे च वर्तयन् । पक्षन्तवार्याप्रश्नीयाबबागू क्वथितां सकुन् ॥२०॥ अपने सामर्थ्य के अनुसार रात्रि वा दिन में अन्न लाकर एक वार खावे वा एक दिन उपवास करके दृमरे दिन सायंकाल का भाजन करे या तीन दिन रात्रि उपवास करके चौथे दिन रात्रि की भोजन करे ॥१५॥ वा चान्द्रायण के विधान से शुक्ल कृष्ण पक्ष में पास घटावे बढ़ावे वा पौर्णमासी अमावस्या में पकी यवागू (लपसी) का एक बार भोजन कर। (२० से भागे एक पुस्तकमें यह श्लोक अधिक मिलता है - यितः पत्रं समादद्यान्न ततः पुष्पमाहरेत् । यतः पुष्पं समादद्यान्न उतः फलमाहरेत् ।।] जिस (धन) से पत्ते ले उससे फूल न ले जिमसे फूल ले उस से फल न ले) Ron प्रयभूलफलंबोषि केवलैर्तियत्मदा । कालपक्की स्वयं जीव खानसमत स्थितः ॥२१॥ भूमा 'विपरिवर्तन तिष्ठेद्वा प्रपदैदिनम् । स्थानासनाम्यां विहरेत्सवनेषुपयन्नपः ॥२२॥ अथवा पुष्प, मूल, फल जो काल पाकर पकें और आप ही गिरे उन से वानप्रस्थाश्रम में रहने वाला निर्वाह करे ।।२१।। भूमि में बैठा करवा दिन भर खड़ा रह । स्थान और श्रासन पर घूम साय प्रातः, मध्याह में निकाल स्नान करे ।।२२|| ग्रीमे पञ्चतपास्तु स्याद्वर्यास्वभावकाशिकः । आर्द्रवासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्धयस्तपः ॥२३||