पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२०

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पाध्याय से लाकर वनवासी अन्न के आठ मास पत्ते वा सकारे पर रखकर भोजन करें। एतावान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो बने बसन् । विविधाचौपनिषदीगत्मसंसिद्धये श्रुति ॥RIl 'पिमित्र मयश्चैव गृहस्थैरेव सेविताः । विधातपोनिवृध्यर्थ शरीरस्य च शुद्धये ॥३०॥ इन दीक्षाओं और अन्या (जो वानप्रस्थाश्रम मे कही है) का बन में रहता हुआ चित्र सेवन करे और विविध उपनिपटो में आई श्रति का आत्मज्ञानार्थ (अभ्यासकरे) ॥२९॥ जोकि ऋषि वापर गृहस्यों ने ही विद्या और तप की वृद्धि तथा शरीर की शुद्धि के लिये सविन की हैं ॥३०॥ अपगजिना वाम्थाय बजेद्दिशमजिलगा । आनिपावाच्छरीरस्य युक्तो धार्थनिलाशनः ॥३१॥ आसामहर्पिचर्याणां त्यतथाऽन्यतमया तनुम् । वीतशोकमयो विग्रो प्रमोके महीयते ॥३२॥ अथवा शरीर के छुटने तक जल वायु भक्षण करता हुवा जिसका पराजय नहो ऐसी दिशाका जितेन्द्रिय और कुटिल गतिसे रहित होकर गमनकरे ॥३॥ इन महर्षियों के अनुमानों में से कोई सा अनुष्ठान करके विप्र शरीर को बाड़ शोक भय से रहित हो, प्रहालक (माक्ष) में महिमा को प्राप्त होता है । (यहां तक बानप्रस्थ आश्रम का वर्णन है। इसन १९ वे से ३२३ तक जो शरीर का वर्णन है, यह आवश्यक विधान नहीं किन्तु सहनशीलतादि वा की वृद्धि के लिये कथन है । जो ऐसा कर सके वा करना चाहे, करें) ||३