पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२१

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३१८ मनुस्मृति भाषानुवाद बनेषु च विहौवं तृतीयं भागमायुषः । चतुर्थमायुपो भार्ग त्यता समान्परिव्रजेत् ॥३३॥ आश्रमादाश्रमं गत्वा हुतहामा जितेन्द्रियः । भिचावलिपरिश्रान्तः प्रवजन् प्रत्य अर्थते ॥३४॥ ऐसे आयु के तीसरे भाग को बन में व्यतीत कर, चतुर्थ भाग में (विपयादि का ) सङ्ग छोड़ कर संन्यास आश्रम को धारण करे (आयु के चार भाग, चारा धाश्रमा पर है ) | आश्रम से आश्रम मे गमन करके (अर्थात् ब्रह्मचर्य से गृहस्थ, उससे वान- अस्थ. उस से) हवन करके मिक्षा और पति से थका हुवा जितेन्द्रिय "संन्यास आश्रम" करन वाजा माल पर बहतामात प्राप्त करता ॥३४॥ मृणानि त्रीण्यपाकृत्य मनोमाचे निवेरा मेत् । अनराकृत्य मोनं तु सेनमानेा बजत्ययः ॥३५॥ अधीत्य विधिवद्व दान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः । इष्ट्वा च शक्तितेा यज्ञेमनामाचे निवेशयेत् ॥३६॥ तीन ऋतुओं को चुका कर मन को मोक्ष में लगाये। विना ऋण के चुकाये मोक्ष का सेवन (चतुर्थ आश्रम का धारण) करने वाला नीचे गिरता है ॥३५॥ विधिपूर्वक वेदों को पढ़ कर विवाहादि धर्म से पुत्रों का उत्पन्न कर यथाशक्ति ज्योतिष्टोमादि यज्ञ करके (ऋषि-मुण, पितु-ऋण और देव-ऋण से निवृत्त हुआ) मोक्ष में मन लगावे ॥३६॥ अनधीत्य द्विजा वेदाननुस्खाद्य तथा सुताइ । .