पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२२

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1 पटाध्याय अनिष्ट्वा चैव यक्ष मोक्षमिच्छन्नजत्यधः ॥३७॥ प्राजापत्य निरूप्येष्टि गर्ववेदसदक्षिणाम् । आत्मन्यग्नीन्समागप्य ब्रह्मणः प्रबजेगृहात् ॥३८॥ वेदाधान मिय विना और पुत्रों का उत्पन्न किये बिना और अथाविधि यनों को न करके मात की इच्छा करता हुआ नीचे गिरता है ।।३७॥ मच दक्षिणा की प्रजापति देवना के उद्देश वाली इटि करके प्रान्मा में अग्नियों का ममारापर करके ब्रामण वानप्रस्थाश्रम से संन्यास को धारण करे l यो इला सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात् । नस्य तेजोमया लोका भवन्ति प्रवादिनः ||३|| यम्नादरसपिभाना द्विजानोग्य भयम् । तम्य देहादियुक्तस्य भयं नास्ति कृतमन ॥४०॥ जोमर प्राणियों को प्रभा देकर गृह में चतुर्थ आश्रम को जाता है, उस मनानी का नेजामय लोक (मोक्ष प्राप्त) होते है॥३९॥ जिस द्विज से प्राणियों को थोड़ा भी भय उत्पन्न नही होता, देह छटने पर उस की किसी से भय नहीं है ( वह भी धमय हो जाता है) ॥४॥ आगाराभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचिता मुनिः । समुपाद्वेषु कामेषु निरक्षेपः परिव्रजेत् ॥४१|| एकएव चरेन्नित्यं सिभ्यर्थमसहायवान् । सिद्धिमेकस्य संपश्यन जहाति न हीयते ॥४२॥ घर से निकला हुवा पवित्र दण्डकमण्डलयुक्त अच्छे प्रकार