पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२३

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३२० मनुस्मृति भाषानुवाद मिलने हुचे कामो मे भी अपेक्षा रहित मुनि संन्यास धारण करे १४शा काकी को मोक्षप्राप्ति होती है। ऐसा जानता हुआ सदा सहायक रहित अकेला ही रहे (तब) वह न छोड़ता है न छूटता है (एकरस हो जाता है) ॥२॥ अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत् । उपेक्षका शंकुसुको मुनिर्भावसमाहितः ॥४३॥ कपालं घृतमूलानि कुचैतम सहायता। समता चैव सरिभन्नेतन्मुक्तस्य शक्षणम् ॥४४|| अग्नि तथा घरसे रहित, मिक्षा के लिये ग्राम का आश्रय करे और दुख होता चिन्ता न करे तथा स्थिरचित्त और मुनि धर्म से युक्त रहे ॥४॥ (भाजनार्थ) खपरा (स्थानाथ) वृक्ष के नीच की भूमि, माट घस्त्री की गुदडी किसीस सहायता न चाहना और सब में समानबुद्धि, यह मुक्त का लक्षण है ॥४४॥ नामिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् । कालमेव प्रतीक्षेत निर्देश भृतको यथा ॥४५॥ न जीवन में सुख माने न मरने मे दुःख माने, किन्तु (मृत्युके) समय की प्रतीक्षा करे। जैसे नौकर आज्ञा की (प्रतीक्षा करता है। "बहुत अच्छा" कह कर प्राण त्याग दे।) नीचे लिखे ३ श्लोकोंमें से एक पुस्तक मे पहले दे और एक पुस्तक में पहला एक और ८ पुस्तकों में तीनों श्लोक अधिक पाये जाते हैं और एक पर राघवानन्द की तथा तीनों पर रामचन्द्र की टीका भी है:- म्यान्हैमन्तिकान्मासानष्टौ भिक्षुर्विचक्रमेत् । दयार्थं सर्वभूतानां वर्षास्वेकत्र संवसेत् ॥१॥