पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२५

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मनुस्मृति भाषानुवाद आर अन्य बोले और पञ्चेन्द्रिय, मन, बुद्धि इन ७ (अथवा १ मुख का, २ नाक के, २ कानो के, २ आंख के इन ७) छिद्रों में बिग्यरीहुई असत्य वाणी न बोले (किन्नु शास्त्रीयवचन बोले) ४८ अध्यात्मरतिरासीना निरपेको निरामिषः * | श्रात्मनेर सहायेन मुखार्थी विचरेदिह ॥४६॥ न चोत्सातनिमित्ताम्यां न नक्षत्राङ्ग विद्यया । नानशासनवादाभ्यां भिक्षा लिप्सेत कहि चित् ॥५०॥ ब्रह्मध्यान में रहने और किसी की अपेक्षा न रखने वाला और विषयों के अभिलाप से रहित तथा अपनी ही सहायता से सुख चाहने गला होकर इस संसार में विचरे ॥४९॥ (भविष्यत्) उत्सात (भूकम्पादि) बताने वा ग्रहों की विद्या वा उपदेश वा शात्रा के बदले मिक्षा की इच्छा न करे ॥५०॥ न तापमानणे वयाभिरपि वा श्वमिः । पाकीर्ण भिक्षुर्वान्यै रागारमुपसं ब्रजेत् ॥५१|| क्लप्तकेशनखश्मश्रुः पात्रीदण्डी कुसुम्भवान् । विचरेनियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन् ॥५२॥ वानप्रायों या अन्य ब्राह्मणों तथा पक्षियों वा कुत्तो वा अन्य मांगने वालों से घिरे मकान में मिक्षा को न जाय ।।५१॥ नख 1. श्म जिस के मुंडे हो पात्र. हण्ड. कमण्डलु और रंगे कपड़ों से युक्त, किमी को पीड़ा न देता हुवा सदा नियम से विचरे १२॥ केश, 'यहां सब टीकाकारों ने आमिप' का अर्थ 'विपर ही किया है।