पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२६

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पठाऽध्याय अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युनिणानि च। तेषामद्भिः स्मृतं शौच, चमसानामिवाध्वरे ।।३।। अलाबुन्दारुपात्रं च मृण्मयं वैदल तथा। एतानि यतिपात्राणि मनु. स्वायंभुवो ब्रवीत् ॥५४॥" "उस के पात्र संजस अर्थात् सोना चांदी, पीतल आदि धातुओं के न हों और छिदरहित है। पानी से उन की पवित्रता कही है। जैसे यज्ञ में चमसा कीशा टूबी, लकड़ी मिट्टी वा बांस के बने हुवे, ये यतियों के भिक्षापात्र हैं। ऐसा "स्वायम्मुव मनु ने कहा है (इसी से सष्ट है कि अन्यकृत हैं ) ||५||" एककालं चरेई न प्रसज्जे तविस्तरे । मैक्षे प्रसक्तोहे यतिर्विपयेष्वपि सन्जति ॥५॥ विधुमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भूक्तवज्जने । चावपाने मिना नित्य यातवरत् ॥५६॥ एक वार भिक्षा करे, वहुत मिक्षा में आसक्त न हो. क्यों कि बहुत मिता में फंसा संन्यासी अन्य विषयों में भी आसक्त हो जोता है ।।१५।। रसोई का धुआं निकल चुका हो, कूटना आदि यन्द होगा हो पा मादी गई हो सर मानन कर चुके हो और रसोई के वर्तत डाल दिये हों, वन (ऐसे गृह में) सहा संन्यासी भिक्षा करे ॥५६॥ अलामे न विषादी स्यान्लामे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासंगाद्विनिर्गतः ॥२७॥ अभिपूजितनामांस्तु जुगुप्सेतैव मशः । अभपूजितलामेश्य यतिर्मुक्तोऽपि वध्यते ॥५८||