पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२७

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३२४ मनुस्मृति भाषानुवाद - (भिक्षा) न मिले तो खेद न करे और मिले तो आनन्द न माने। जीवन मात्र का उपाय करे। मात्रासङ्ग (शब्द रूप रस गन्ध म्पर्श) विषयों में पृथक रहे ।।५४ा यति पूजापूर्वक (स्वादिष्ट मिक्षा) लामा की निन्दा करे (अर्थात् 'ऐमी मिक्षा प्रमन्न न करे) क्योकि ऐसो भिक्षा के लाभां से मुक्त भी यति (देने वाले के स्नेह ममत्वादि से) बन्धन का प्रात हो जाता है ।।५८॥ अल्पानाम्यवहारेण म्हः स्थानामनेन च । द्वियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत् ॥५६॥ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वप क्षयेण च | अहिंसया च भूतानाममतत्वाय कल्पते ॥६०॥ थोडे भोजन. निर्जन देश ओर एकान स्थान में रहने से विषयों से खिंची हुई इन्द्रियो को रोके ॥१९॥ इन्द्रियों को रोकने राग द्वेष के नारा तथा प्राणिो को हिंमा न करने से मोक्ष के योग्य होता है ।।६०॥ अवेक्षेन गतीनणां कर्मदोपसमुद्भवाः । निये चैत्र पतनं यातनाथ यमनरे ॥६१॥ विप्रयोग प्रियश्चैव संयोगं च तथाऽप्रियः । जस्या चामिभवनं व्याधिभित्रोपपीडनम् ।।६२|| मनुष्यो के कर्म दोशे से उत्पन्न दशाओं और नरक मे गिरने और मृत्यु के पश्चान नाना प्रकार की शिक्षाओ का चिन्तन करे ॥६॥ और पागके वियोग तथा शगुओ के संयोग, वृद्धावस्था से दवाये जाने तथा आपियों से पीड़ित होने पर भी (ध्यान करे) ||६||