पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२८

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पमाऽध्याय देहादुत्क्रमणं चास्मात्पुनर्गमें च सम्भवम् । यौनिकाटिसहस्र 'पु सूतोवास्यान्तरात्मनः ॥६३॥ अधर्मप्रभ र दुःखयोगं शरीरिणाम् । धर्मार्थप्रभवं चैव सुखमयोगमक्षयम् ॥६४।। इस देह से निकलना. फिर गर्भ में उत्पत्ति और काटि सहयो योनिया में इस जीवात्मा का जाना ॥शा देह धारियों को अब से दुःख के योग और धन अर्थ से उत्पन्न अक्षय मुख के अंग का भी (चिन्तन करं)॥६॥ सूक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मनः । देहेषु च समुत्पत्तिमुत्तमेष्वधमेषु च ॥६॥ इपिताऽपि चरेद्धर्म या तश्राश्रमे सः । समः स भूतेषु न लिङ्ग धर्मकारणम् ॥६६॥ योग से परमात्मा की सूक्ष्मता का ध्यान करें। उत्तम और श्रथम योनियों में जीवो के शुभाशुभ फल भोग के लिये उत्पत्ति का भी (चिन्तन करें)॥३५॥ जगाने पर भी सम्पूर्ण जीवा में समदृष्टि करता हुआ चाहे किमी आश्रममे रहे पर धर्मक आचरण करे क्यों कि (दण्डादि) चिन्ह धर्म का कारण नहीं हैं। (एक पुस्तक में दृषितः गृहस्थः और चार पुस्तकों में भूषित पाठ भेद है)॥६६॥ फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्धुप्रसादकम् । न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति ।।६७|| संरक्षणार्थ जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा |