पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद शशरस त्यो चैव समीक्ष्य वसुधा चरेत् ॥६॥ (जैसा कि निर्मली का फल यद्यपि पानी शुद्ध करने वाला है तथापि निर्मली के नाम लेने से ही पानी शुद्ध नहीं होता ।।६७|| (पिपीलिकादि सूक्ष्म) जन्तुओ की रक्षा के लिये रात्रि मे वा दिन में शरीर को क्लेश होने पर भी भूमि को देखकर चले ॥६८॥ अहा राज्याच याजन्तून्हिनस्त्यज्ञानता यतिः । तेपास्नात्वा विशुध्रथं प्राणायामापडाचरेत् ॥६६|| प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः । व्याहति प्रणयुक्ता विज्ञेयं परमं तपः ॥७॥ यति से जो जीव विना जाने दिन या रात्रि में मर जाते हैं, उस पाप से दूर होने का स्नान करके छः प्राणायाम करे ॥६९|| (भू. भुवः स्वः) इन व्याहृति और प्रणव (ओ३म्) युक्त विधि से किये हुवे ३भी प्राणायाम ब्राह्मण का परम तप जानिये ।।७०।। दधन्ते ध्यायमानानां घातूनां हि यथा मलाः । तयेन्द्रियाणां दान्ते देोषाः प्राणस्य निग्रहात् ।।७।। प्राणायामहेदोषान्धारणाभिश्च किल्विषम् । प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ॥७२॥ जैसे (सुवर्णादि) धातुओ के मैल अग्नि मे धोकने से फुकते हैं वैसे ही प्राण के रोकने से इन्द्रियों के दोष जल जाते हैं |७१।। प्राणायामों से रोगादि दोषो को धारणाओ से पाप को इन्द्रियों के रोकने से विषयों के संसों को और ध्यानादि से मोहादि गुणों को जलावे ॥२॥