पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पाऽध्याय ३२७ उच्चायवेषु भूतेषु दुज्ञेयामकृतात्मभिः । ध्यानयोगेन मपश्येद् गविमस्यान्तरात्मनः ॥७३॥ सम्यग्दर्शनमपन्नः कर्मभिर्न निवद्धमा । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ७४॥ इस जीव की उत्तम, अधम योनियों में प्राप्ति का, जो अकृतात्म पुरुषों से नहीं जानी जाती ध्यान योगमे देखे (जाने) |७३॥ (ब्रह्म का) साक्षात् करने वाला क्रमों से नहीं बंधता और साक्षात्कार से रहित संसार को प्राप्त होता है ।।७४ अहिंसयेन्द्रियासगावदियश्चैव कर्मभिः । तपश्चरणेश्यो। साधयन्तीह तत्पदम् ॥१७॥ अस्थिस्थणं स्नायुयुर्व मांसाणितजेपनम् । चावनई दुर्गन्धिपूर्ण मूत्रपुरीपयोः ॥७६।। हिंसा न करने इन्द्रियों को विपयों में माने और वैदिक कों और उप्रतप के आचरणों से इस लोक में उस पद का सिद्ध करते हैं ।।७५॥ हाही को स्थूणा (स्तम्भ) युक्त, स्नायुरूप जैबड़ी से बांधे, मांस रक्त से लिथड़े, चाम से मंढे हुये, दुर्गन्धित और मलमूत्र स पूर्ण ॥७॥ जराशाकममाविष्ट रोगायतनमातुरम् । रजस्वलमनित्यं च भूतावासमिमं त्यजेत् ॥७७|| नदीकुलं यथा वृक्षो वृक्ष वा शकुनिर्यथा । तथा त्यजत्रिम देहं कृच्छाद् ग्राहाद्विमुच्यते ||७|| जरा (बुढापे) और शोक से घिरे हुवे रोगके घर, क्षुधा ग्यास