पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२८ मनुस्मृति भाषानुवाद से पीडित. रजम्वल (मलीन) अनित्य तथा पञ्चभूतो के गृह "शरीर को बाबवेवे (अर्थान ऐसा करे कि फिर शरीर न हो) ||७| जैसे नदी के किनारकोवृिक्ष छोड़ देता है ऐसे संन्यासी इस देहको छोडता हुआ कनिन (संसार रूपी) पाहसे लट जाताहै ।७८॥ प्रिरेषु स्वेषु सुकृतमप्रियेषु च दुष्कृतम् । विभज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माभ्येति सनातनम् ||६|| थट्टा भाषेन भवति सर्वभावेषु निस्पृहः । वदासुखमवाप्नोति प्रत्य चेह च शाश्वतम् ||coll अपने प्रिय में (पूर्वजन्मार्जित) सुकृत और अप्रिय में दुष्कृत (जानकर उस मे होने वाले रागद्वपादि) को छोड़ कर ध्यान योग से मनात र ब्रा का प्राव होता है ॥७९|| जब (विषयों के दोषों के) ज्ञान से संपूर्ण पदार्थों में नि.गृह हो जाता है तब इस लोक और परलोकमे नित्य सुख को प्राप्त होता है ।।८।। अनेन विधिना सर्वोत्यक्त्वा सङ्गान् शनैः शनैः । सर्गद्वन्दु विनिर्मुक्तो ब्रमण्येवावतिष्ठते । १॥ ध्यानिकम् समेतद्यदेतदभिशब्दितम् । न च नमात्मवित्तचिकिया कलमपाश्नुते ||८२॥ इस प्रकार संपूर्ण (पुत्र कलवादि के) सङ्गो को धीरे २ छोड़ कर संपूर्ण द्वन्द्वो (मानाऽपमानादि) से छूटा हुआ ब्रह्ममें ही स्थित हो जाता है ।।८।। यह जो (पुत्रादि का) ममत्व त्याग रहा है वह सम्पूर्ण मनसे ही होता है, क्योंकि मन से (त्याम) न करने वाला (केवल दिखावे को अलग रहने वाला) कोई उस क्रिया के फल को नहीं प्राप्त होता ॥२॥