पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३२

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पठाऽध्याय ३२९ अधियझं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च । आध्यात्मिकं च सततं वेदान्ताभिहितं च यत् ।।३।। इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम् । इदमन्विच्छवां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम् ।।८।। यन्त्र और देवतो तथा आत्मा के विषय मे और वेदान्त (ब्रह्म- ज्ञान) विषय में जो वेदवाक्य है उनका निरन्तर जप करे ||८|| यह विदाम्यास) अज्ञानियों को और नानियों को भी हित है। यह स्वर्ग और मोक्ष की इच्छा करने वालो का भी शरण है (अर्थात दद्वारा सत्र की प्राप्ति है) ।।४॥ अनेन कर्मयागेन परिषजति यो द्विषः । स विधूमेह समानं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥५॥ एष धर्माऽनुशिष्टो वा यतीनां नियतात्मनाम् । द संन्यासिकानां तु कर्मयोग निवोधत ॥८६॥ इस क्रम के अनुष्ठान से जो द्विज संन्यास धारण करता है, वह यहां पापों का नाश करके परब्रह्म को प्रात हो जाता है ।।५।। जितेन्द्रिय यतियोंका यह धर्म तुमको बताया। अब वेद मन्यासियां (ज्ञान से ही संन्यासी जिन्होने बाहर से संन्यस्थ चिन्ह वा गृहवास त्यागादि नहीं किये) का कर्मयोग सुना ॥८६॥ ब्रमचारी गृहस्थश्च वानप्रस्या यतिस्तथा । एते गृहस्थप्रमवायत्वास पृथगाश्रमाः ॥८७|| सर्वे क्रमशस्त्वेते यथाशास्त्रं निवित। यथाक्तकारिणं विन नयन्ति परमः leel ४२ । in