पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३३

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३३० मनुस्मृति मापानुवाद- ब्रह्मचारी गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति ये पृथक र चार आश्रम गृहस्थ में उत्पन्न है ।।८७॥ ये चारो ही आश्रम कम से शास्त्रानुराज सेवित किये हुये उन विधि से करन वाले विप्र का मोक्ष प्राप्त कराते हैं । सर्व पामपि चतेषां वेदरमृनिविधानतः । गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेनान्विनि हि ||ell यथा नदीनदाः सन सागरे यान्ति मंस्थितिम् । तथैवाश्रमिण सबै गृहस्थ यान्ति संस्थितिम् ।।६०॥ इन सब पाश्रमों में वंदो और स्मृतियों के विधान से गृहस्थ श्रेष्ठ कहा है क्योकि यह वीनो का पोपश करता है ||८९॥ जैसे सम्पूर्ण नदी और नन समुद्र में आकर ठहरते हैं वैसे ही सत्र आश्रमी गृहस्थ में ठहरते हैं (आश्रय पाते ॥१०॥ चतुभिरपि चैवैतनित्यमाश्रमिमिद्विजैः । दशलक्षणकेशधर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः ॥१॥ अतिः क्षमा दमास्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥शा चारों आश्रमी द्विजो को दश लक्षण वाले धर्म का सेवन यत्न से करना चाहिये ।।९१॥ १-धैर्य र-दूसरे की करी हुई बुराई को सह लेना ३-मन का रोकना ४-चारी न करना ५-शुद्ध होना ६-इन्द्रियो का रोकना ७-शास्त्र का ज्ञान ८-आत्मा का ज्ञान ९-सत्य बोलना और १०-क्रोध न करना । ये धर्म के दश लक्षण है (५ पुस्तको और नन्दनकृत टीकामें-धीही पाठभेद है) ॥१२॥ दश लचणानिधर्मस्य ये विनाः समधीयते । . .