पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३६

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ओश्म अथ सप्तमोऽध्यायः राजधर्मान्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तोभवेन्नृप । -संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा ॥१॥ बाम प्राप्तेन संस्कारं चत्रियेण यथाविधि । सनस्यास्य यथान्यायं करव्यं परिक्षणम् ॥२॥ जैसे आचरण वाले राजा होने चाहिम उस प्रकार के राजधर्मो और राजा की उत्पत्ति और जैस (राजा के प्रभुत्व की) उत्तम सिद्धि हो उसको आगे कहूंगा ॥१॥ वेदोक्त मस्कार हुवं क्षत्रिय का इस सम्पूर्ण (राज्य) की न्यायानुसार रक्षा करनी चाहिये । अराजके हि लोके स्मिन्सनाविद्दुतै भया । रचार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत्प्रभुः ॥२॥ इन्द्रानिलयमाकाणामग्नेश्च वरुणस्य च । चन्द्रविचेशयोश्चैव मात्रा निहल शाश्मी. ॥४॥ बिना राजा के इस लोक में भय से चा। और जन रिवन होजाता इस कारण सबकी रक्षा के लिये ईश्वर ने राना को उसन किया ॥३॥ इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण चन्द्र और कुवेर को शाश्वत मात्राओं (सारमूत अंशो) को निकाल कर (राना को बनाया अर्थात् इन दिव्य पुणांशोसे युक्त पुरुष राजा होता है) 18