पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सममाध्याय कुरुन धमिध्यर्थ विश्नरूपः पुन पुनः ॥१०॥ अग्नि के कार काई ननुम्ब कुचान चले न अग्नि उमी एक का जलाना है, परन्तु राजा (कुचाल चनन गन के) कुल जीभ पशु और धनमहित नटकर टेनामा कार्य शक्ति देश और कान का मन्त्र से दबकर धर्मसिद्धि के लिय राजा चार २ नाना प्रकार का रूप धरना है (कभी नमा, कभी काप, कभी मित्रन्त्र कभी शत्रुत्व इत्यादि) ॥१०॥ यम्य प्रसाद पद्मा श्रीजियश्च पगक्रमे । मृत्युश्च वमति क्रोधे सतिजामयोहि मः ॥११॥ तं यस्तु दोष्टि समाहात्स विनश्यत्यसंशयम् । तस्य शाशु विनाशाय राजा प्रवरुने मन ॥१२॥ जिमको प्रमन्नता मे लक्ष्मी रहती है (हन्यप्रानि होती है) और पराक्रम में जब रहता है और क्रोध में मृत्यु बाम करता है, वह (गजा) अवश्य सबनजामर है ||१२|| जो अमानवश गजा मे द्वेष करता है वह निश्चय नाश को प्राप्त होता है क्योंकि उसक शीघ्र नाग के लिये राजा मन बिगाड़ना है ॥१२॥ तस्माद्धर्म अमिप्टेषु स व्यवस्येन्नगधिप । अनिलं चाप्पनि पुतं धर्म न विचालयेत् ॥१३॥ तस्यार्थं सर्वभूतानां गोप्नारं धर्ममात्मजम् । चलतेजोमयं दएडममजन्पूर्वामीश्वर ॥१४॥ इस लिये राजा अपने अनुकूलों में जिस धर्म-कानन का और प्रतिकूलों में जिस अनिष्ट का निश्चय करे (कानून बनावे),