पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३४०

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सामाऽध्याय ३३७ - यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्डेयवनन्द्रितः । शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलाबलबञ्चराः ॥२०॥ वह (दण्ड ) शास्त्र से अच्छे प्रकार देख कर घरा हुवा सम्पूर्ण प्रजा को प्रसन्न करता और बिना देखे किया हुआ, चारों ओर से नाश करता है ।।१९।। आलस्य रहित राजा यदि अप- राधियों को दण्ड न देवे तो शूल पर मछली के समान अति बलवान् लोग निर्वलों को भून डाले ॥२०॥ अधात्काकः पुरोडाशं खा च लिह्याद्धविस्तथा । स्वाम्यं च न स्यात्कस्मिंचित्प्रवर्तताधरोत्तरम् ॥२१॥ सर्वो दण्डजिता लोका दुर्लभाहि शुचिर्नरः । दण्डस्य हि मयात्सर्व जगोगाय कल्पते ॥२२|| (यदि राजा दण्ड न करे तो) कौवा, पुराडाश भक्षण कर जावे, कुचा हवि का भक्षण करले और कोई किसी का स्वामी (मालिक) न हो सके नीचे ऊँचे और ऊँच नीचता मे प्रवृत्त हो जावे ॥२१॥ सम्पूर्ण लोग दण्ड से नियमित किये हुवे ही सन्मार्ग में रहते है क्यों कि (स्वभाव से सन्मार्ग में रहने वाला) शुधि मनुष्य दुर्लभ है। सम्पूर्ण जगत् दण्ड के भय से ही भोग कर सकता है । देवदानवगन्धर्वा रक्षांसि पतगारगाः । तेऽपि मोगाय कल्पन्ते दण्डेनैव निपीडिताः ॥२३॥ दुष्येयुः सर्ववर्णाव भिवरन् सर्गसेतवः । सर्नलोकप्रकापश्च भवेदण्डस्य विभ्रमात् ।।२।।