पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३४२

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सतमाऽध्याय -रहित राजानी से धारण नहीं किया जा सकता किन्तु राजवर्मसे 'विपरीतराजा ही का बन्धुसहित नाश कर देता है ||२८|| • ततादुर्गच राष्ट्र च लोकं च सचराचरम् । अन्तरिक्षगतांश्चैव मुनीन्देवांश्च पीडयेत् ॥२६॥ सो सहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना । न शक्या न्यायतानेतु सक्तन विषयेषु च ॥३०॥ राजा के नाश के अनन्तर किला राज्य और स्थावर जगम प्रजा व अन्तरिक्ष के रहने वाले पक्षी और वायु आदि देवतों को (हव्यादि न मिलने से) और सब मुनियों को (वह अधर्मा राजा का दण्ड) पीड़ित करने लगेगा ।।२९॥ (मन्त्री वा सेतापतियों के) सहाय से रहित मूर्ख लोभी, निर्बुद्धि और विषयों में आसक्त राजा से वह (दण्ड - राजधर्म) न्यायपूर्वक नहीं चल सकता ।३०। शुचिना सत्यसन्धेन यथाशास्त्रानुमारिणा | प्रणेतु नाक्यते दण्ड सुसहावेन धोमता ॥३१॥ स्वगन्यायवृत्तः स्याद्भृशदण्डव शत्रयु । सुहृत्स्वजिल्ला स्निग्धेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः ॥३२॥ - शौचादियुक्त सत्यप्रतिन शाम्बके अनुसार चलने वाले अच्छे सहायकों वाले और बुद्धिमान् राजा से दण्ड चलाया जा सकता है (ऐसा राजा शिक्षा करने के योग्य है) ॥३शा राना को माने राज्य में न्यायकारी और शत्रुओं का सदा दण्ड देने वाला और प्यारे मित्रों से कुटिलना रहित और ब्राह्मणा पर क्षमाधुक्त होना चाहिये ॥३२॥ एवं वृत्तस्य नृपतेः शिलाञ्छेनापि जीवतः ।