पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद विस्तीर्यते यशो लोके तैलविन्दुरिवाम्मसि ||३३॥ अतस्तु विपरीतस्य नपतेरजितात्मनः । संक्षिप्यते यशोलाके घृतबिन्दुरिवाम्भसि ॥३४॥ उक्त प्रकार चलने वाले शिलान्चचि से भी जीवते हुये राजा का यश जगन् मे फैल जाना है जैस पानीम तेलकी की चूद ॥३शा विषयासक्त और इम से विपरीत चलने वाले राजा का यश लाको में संकोच को प्राप्त हो जाता है जैसे पानी मे चूत की चूद ॥३४॥ से स्वे धर्मे निविष्टानां भजेषामनुपूर्वशः । वर्णानामाश्रमाणां च राजा सृष्टोऽमिरचिता ॥३५॥ तेन यद्यसभृत्येन कर्नव्यं रचता प्रजाः सतहोऽहं प्रयच्यामि यथावदनुपूर्व शः ॥३६॥ अपने २ धर्म में चलने वाले आनुपर्य से सब वणों और आश्रमों की रक्षा करने वाला गजा (श्वर ने) उत्पन्न किया है ।।३५।। प्रजा की रक्षा करते हुवे अमात्यों सहित उस राजा का जोर करना चाहिय सो तुमसे मैं क्रममाथ यथावन् कहूंगा ॥३६॥ बामणान्पर्युपासीत प्रातरुत्थाय पार्थिवः । त्रैविधवृद्धान्विदुपस्तिष्ठेत'पां व शासने ॥३७॥ बृद्धांच नित्यं सेवेत विप्रान्वेदविदः शुचीन् । वृद्धसेवी हि सततं रक्षोभिरपि पूज्यते ॥३॥ राजाको प्रातःकाल उठकर ऋग् यजु सामवेद और धर्मशास्त्र के जानने वाले ब्राह्मणो के साथ बंटन और उनके शासन को मानना चाहिये ।।३७॥ वेद जाननेवाले पवित्र, आयुमै वृद्ध ब्राह्मणों