पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३४४

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सममाऽध्याय की नित्यं सेवा करे क्योकि वो विद्वानो की सेवा करने वाला (राजा) दुष्ट जीवों से भी पूजा (मत्कार) पाता है ॥२८॥ तेम्याधिगच्छद्विनयं विनीतात्मापि नित्यशः । विनीतात्माहि नृपतिर्न विनश्यति कर्हि चित् । ३६॥ बहवोऽविनयानटा राजानः सपरिच्छदाः । वनस्यापि राज्यानि विनयात्प्रतिपेदिरे ॥४०॥ शितिन राजा भी उन (विद्वानो) से शिक्षा का निध अभ्यास करे क्योकि सुशितिन राजा कमी नाश को प्राप्त नहीं होता ॥३९॥ (हाथी घोड़ा खजाना इत्यादि सब) सामानों से युक्त बहुत से राजा विनय रहित नष्ट है।गये और बहुत से (वं सामान) जङ्गल में रहने हुवे भी ग्निय से राज्य को प्रानो गये ॥४॥ "वनाविनष्टोविनयानहुपचैव पार्थिवः । सुदास यवनश्चैव सुमुखानिमिरेव च ॥४१॥ पृथुस्तु विनयाद्राज्यं प्राप्तवान् मनुरेव च । कुवेव धनैश्वर्य ब्राह्मण्यं चैव गाविजः ॥४२॥" वेन नहुप सुगम ववन, सुमुख और निमि भी अविनय से नष्ट हो गये ॥४शा पृथु और मनु विनय में राज्य पा गये और कुवेर ने विनय से धनाधिपत्य पाया और गात्रि के पुत्र विश्वामित्र (विनय से) ब्रमण हो गये । (यह श्लोक मनु के नही क्योकि स्वयं मनु और यवन तकको भी इनमें भूनकालस्य वर्णन किया है)।४।' त्रैविभ्यस्त्रयीं विधां दण्डनीति च शाश्वतीम् । आन्वीक्षिकी चात्मविद्यावारिम्भाष लोकतना४३॥