पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४२ मनुस्मृति भाषानुवाद. 1 . इन्द्रियाणां जयेयोगं समातिष्ठेद्दिवानिशम् । जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशेस्थापयितुं प्रजा: ॥४॥ तीनो वेदों के जानने वालों से तीनो वेद (पढ़े) और सनातन दण्डनीति विद्या तथा वेदान्त (पदे) और लोगों से व्यवहारविद्या (पढ़े) ॥४शा इन्द्रियो के जय का रात दिन उद्योग करे क्योकि जितेन्द्रिय ही प्रजा को वश मे कर सकता है ॥४४॥ दशकामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधनानि च । व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥४॥ काभजेषु प्रसक्तोहि व्यसनेप महीपतिः । वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु ॥४६॥ काम से उत्पन्न दश और क्रोध से उत्पन्न आठ (ऐसे १८ व्यसनों ) को जिन का अन्त मिलना दुर्लभ है. यल से छोड़ देखें ||४५|| काम से उत्पन्न (दश) व्यसनों में आसक्त हुवा, राजा अर्थ और धर्म से,हीन हो जाता है और क्रोध से उत्पन्न (८) व्यसनोमे आसक्त तो अपने शरीरसे ही (नष्ट हो जाता है) ॥४६॥ मृगयाक्षादिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियोमदः । तौर्यत्रिकं वृथाया च कामजो दशका गणः ॥४७॥ पैशुन्यं साहसं माह ईर्ष्या स्वार्थपणम् । वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गोडएकः ।४८) शिकार करना, जुवा खेलना दिन में सोना, दूसरे के दोषों को कहते रहना, स्त्री सम्भोग मद्यपान, नाचना, गाना, बजाना और बिना प्रयोजन घूमना ये वश काम के व्यसन है 11४७