पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३५० . मनुस्मृति भापानुवाद जाता है। "कृत्य" शब्द भट्टी और कामन्दकीय नीतिसार श्रादि अन्थो मे भी प्रयुक्त है ।।६७॥ बुद्ध्वा च सर्व तत्वेन परराजचिकीर्पितम् । तथा प्रयत्नमातिप्ठेयथात्मानं न पीडयेत् ॥६॥ शत्रु राजा की सव इच्छाओं को ठीकर जान कर वैसा प्रयत्न करे जिसम (वह) अपने को पीडा न दे सके ॥६॥ जाङ्गलं सस्यसंपन्नमार्यप्रायमनाविलम् । रम्यमानतसामन्त स्वाजीव्यं देशमावसेत् ।।६६|| धनुदुर्ग महीदुर्गमदु पार्थमेव था । गिरिदुर्ग नदुर्ग वा समाश्रित्य वसेत्पुरम् ।।७०॥ जङ्गल जहां थोडा घास और पानी भी हो धान्य बहुत हो. अच्छं शिष्ट आर्य पुरुष निवास करते हो और रोगादि उपद्रव मे रहित हो. देखन में मनाहर और जिसके पास अच्छे वृक्ष पक्षी खती और वातार हो ऐसे देश में रहे ॥६॥ जहां धनुदुर्ग महीदुर्ग जलदुर्ग वृक्षदुर्ग मेना दुर्ग वा गिरिदुर्ग हों ऐसे किसी दुर्ग कामाश्रय करके पुर वसावे (जहां धनुपो वा भूमि की बनावट वा जल या वृक्ष वा सेना वा पहाडझे का एसा घेरा हो जिसे दुर्ग (कला) कह सकें । जहाँ शत्रु को पाना कठिन हो ॥७०|| सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्ग समाश्रयेत् । एपा हि बाहुगुण्येन गिरिदुर्ग विशिष्यते ॥१॥ श्रीण्याधान्याश्रितास्वेपा मगगाथयाप्तराः । श्रीपयुत्तराणि क्रमशः पल्यङ्गमनरामराः ॥७२॥