पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३५५

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मनुस्मृति भाषानुवाद तस्य मध्ये सुपर्याप्त कारयेद् गृहमात्मनः । गुलं सर्वतु के शुभ्र जलवृक्षसमन्वितम् ॥७६।। वह दुर्ग आयुध (शस्त्रादि) धन धान्य, वाहनों, ब्राह्मणों कनों के जानने वालों, कला, चारा. जल और इन्धन से समृद्ध हो । (पुस्तकों मे उदकेन च-उद्धवन्धन. पाठ है) ||५|| उस किले के भीतर पर्याप्त (स्त्री-गृह देवागार आयुध मन्दिर अग्निशालादि और भित्तियों से रक्षित और सब ऋतुओं के फल पुप्पावि युक्त और सफेदी किया हुआ तथा जल और वृक्षों से युक्त अपना घर बनावे ॥६॥ तदध्यास्योद्वहेदायां सवर्णा लक्षणाविताम् । कुलेमहति सम्भूतां हुयां रुपगुणान्विताम् ॥७७|| पुरोहितं च कुर्वीत घृणुपादेव चत्विजम् । तेश्स्यगृह्याणि कर्माणि कुर्यु जानिकानि च ७ell उस घर मे रहकर अपनी सवर्णा शुभलक्षणयुक्त बड़े कुल में उत्पन्न हुई मन प्रसन्न करने वाली तथा रूप और गुणों से युक्ता भार्या को विवाहे ||४|| पुरोहित और ऋत्विज का वरण करे। वे इसके गृह्यकर्म (अग्निहोत्र) और शान्त्यादि क्रिया करें (इनको भी किले में रम्बे) ॥८॥ यजेत राजा ऋतुभिविविधैराप्तदक्षिणैः धर्मार्थ चव विन भ्यो दद्यादोगान्धनानि च ॥७६|| सांवत्सरिकमाप्तैश्च राहादाहारयेद् बलिम् । स्याच्चाम्नाय परालोके वर्तेत पितृवन्नुपु ||८०॥ ।