पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३५७

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मनुस्मृति भापानुवाद "सममवाबणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब वे । प्राधीते शतमाहस्रमनन्तं वेदपारगे ||८॥" पात्रस्य हि विशेपेण श्रधान तथैव च । अल्पं वा बहु वा प्रत्य दानस्यावाप्यते फलम् ॥८६॥ कृत्रियादि का देने में बराबर फल होता है (अर्थात् न्यूनाधिक नहीं) (जा क्रिया रहित) अपने को ब्राह्मण कहता है, उसका देने में दूना और पढे हुये को देने से १ लक्षगुण और पूर्ण वेद पढ़े ब्राह्मण को देने से अनन्त फन शेता है।" (यह नाममात्र के ब्राह्मण ब्रुवों ने बनाया जान पड़ता है) ॥४५वेदाध्ययनादि पात्र के विशेष से और श्रद्वा की अनिशयता के अनुमार थोड़ा वा बहुत परलोक में गान का फल मिलता है। (८६ वें से आगे र श्लोक हैं, जिन मे से पहिला ३ पुस्तकों में और दूसरा १ पुस्तक और मेधातिथि तथा राघवानन्दी टीका में पाया जाता है:- [एप एव परोधर्मः तस्तो रानः उदाहृतः । जित्वा धनानि संग्रामाद् द्विजेभ्यः प्रतिपादयेत् ॥१॥ देशकालविधानेन ट्रन्यं श्रद्धासमन्वितम् । पात्रे प्रदीयते यत्त तद्धर्मस्य प्रसाधनम् ॥२॥ राजा का सार परम धर्म यही है कि संग्राम से धन जीत कर द्विजों का वांट दे ॥शा देशकाल के विधान से श्रद्धासहित द्रव्य जो कुछ पात्र को दिया जाता है वह धर्म का शृङ्गार है। यह दानपात्र द्विजा ने पीछे से बढा दिये जान पड़ते हैं जो कि सब पुस्तको में नहीं पाये जाते, न सब की टीका इन पर है और आन्धर्य नहीं कि ८३ १८४वें भी इन्हीं दानपात्रो ने बनाये है।) १८६॥