पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३५८

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सप्तमाऽध्याय ३५५ समोत्तमाधमैराजा वाहूनः पालयन्जाः । न निवर्तेतसंग्रामात् क्षात्र धर्ममनुस्मरन् ।।८७॥ संग्रामेष्वनिवर्तित्व प्रजानां चैव पालनम् । शुश्रूषा ब्रामणानां च राज्ञां श्रेयस्करं परम् ॥८८|| प्रजा का पालन करता हुवा राजा सम, उत्तम वा हीन शत्रु के माय वुजाने पर क्षत्रियधर्म को स्मरण करता हुवा युद्ध से न हटे || संग्राम से न भागना और प्रजा का पालन करना तथा वासयों की सेवा के राजा के परम कल्याण करने वाले फर्म है ।। आहवेषु मियाऽन्यान्यं जिवांसन्ता महीक्षितः । युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्मुखाः ।। न कूटैरायुधैईन्यायुध्यमाना रणे रिपून् । न कर्णिमिनापि दिग्धैनाग्निचीजोजनेः ।।६०॥ संपामो मे एक को एक मारने की इच्छा करते हुवे राजा लोग परम शक्ति से लड़ते हुवे, पीछे न हटने वाले स्वर्ग को प्राप्त होते हैं ।। ८९॥ लड़ता हुवा रण मे शो को कूट (छिपे) आयुषो से न मारे और कर्णी (वाण जा फिर निकलने कठिन हो) उन से ओर विष मे बुझाये हुओं तथा जलतो से भो न मारे। (पूर्व श्लाको में योद्धा को स्वर्ग प्राप्ति कही थी। अब उस संप्राम के ऐसे नियमो का वर्णन है, जो अष्टा है, अर्थान् जिन नियमों से लड़ने वाला का मानुषी स्वाभाविक अक्रूरता से लड़ते हुवे अश्य पारलौकिक फर मिल सकता है क्यों कि केवल राज्य लोमार्थ, जैसे बने वेसे जीत कर लेने वाले स्वार्थी योद्धा उत्तम