पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३५९

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३५६ मनुस्मृति भाषानुवाद गति के अधिकारी नहीं हो सकते)|१०|| न च हन्यात्स्थलासहं न क्लीयं न कृताञ्जलिम् । न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम् ॥११॥ न सुप्तं न बिसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम् । नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम् 118२|| (स्थ से उतरे) भूमि पर स्थित को न मारे, न नपुंसक को. न हाथ जोडे हुवे को, न शिर के बाल खुले हुवे का, न बैठे हुवे को और न 'तुम्हारा ई ऐसे कहते को (मारे) ॥९१॥ न सोते की, न कवच उतारे व को, न न) को न चे हथियार को, न थे, लड़ने वाले को न ( तमाशा ) देखने वाले को और न दूसरे से समागत करने वाले को (मारे) ||२|| नायुषव्यसनप्राप्तं नाते नाति परिक्षतम् । न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन् १९३॥ यस्तु भीतः परावृत्त संग्रामे हन्यते परैः। भर्तुर्यद् दुष्कृतं किञ्चित्त सर्व प्रतिपद्यते 18xii न टूटे श्रायुध वाले की, न (पुत्रादि मरने से) आर्त को, न जिस के बहुत घाव हुवे हो उस को नडरपोक को न भागने वाले को, सत्पुरुषों के धर्मका अनुस्मरण करता हुआ (मारे) ॥९शा जो योद्धा युद्ध मे डर कर पीछे हटा हुवा शत्रुओं से मारा जाता है, वह स्वामी का जो कुछ पाप है उस सव को पाता है ।।४।। यद्यास्य सुकृत किञ्चिदमुत्राथमुपार्जितम् । भर्चा तत्सर्वमाटो परावृत्तहतस्य तु ॥६५॥