पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३६१

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३५८ मनुस्मृति भाषानुवाद एतच्चतुर्विधं विद्यात्पुरुषार्थप्रयोजनम् । अस्य नित्यमनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः ॥१०॥ जो नहीं मिला है, उस के लेने की इजा करे, मिजे हुवे की प्रयत्न से रक्षा करें और जो रतित है, उस को बढावे और पढ़े को अच्छे योग्य पात्रों को देवे ॥९९।। यह चार प्रकार का पुरुषार्थ प्रयोजन जाने । आलस्य रहित होकर निन्य अच्छे प्रकार इस का अनुमान करे ॥१०॥ अलब्धमिच्छेइण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया । रचितंवर्धयेद् अध्या वृद्ध दानेन निक्षिपेत् ॥१०१॥ नित्यमुवादण्डः स्यानित्यं विवृतपौरूप । नित्यं संवृनसों नित्यं छिद्रानुसार्यरेः ॥१०२|| जो नहीं प्राप्त है उसको दण्ड से (जीतने की ) इच्छा करे और प्रान को देखने से रक्षा करे और रचित को व्यापार से वहाये ओर वो को दान से जमा कर दे। ॥१०१|| सहा दण्ड को उद्यत रक्वे, सा फैने पुरुषार्थ वाला रहे और सदा अपने सम्पूर्ण अथोंके गुप्त रक्खे और शत्रुके विद्रोको सदा देखे !१०२। नित्यमुग्रसदण्डस्य कृत्स्नमुद्विजते जगत् । तस्मात्सर्वाणिभूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत् ॥१०३|| अमाययैव वर्शत न कथंचन मायया । बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नित्यं स्वसंवतः ॥१०॥ नित्य उद्यत दण्ड वाले राजा से सम्पूर्ण जगत् डरता है. इस लिये दण्ड ही से सम्पूर्ण जीवों को स्वाधीन करे ॥१०॥ छल