पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३६२

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सतमाऽध्याय ३५९ से रहित व्यवहार करे, किसी प्रकार छल से न करे और अपनी रक्षा करता हुआ शत्रु के किये छल को जानता रहे ॥१०४।। नास्य छिद्रं परोविद्याद्विग्राच्छिद्रं परस्य तु । गृहेत्कर्मइवाङ्गानि रचेद्विवरमात्मनः ॥१०॥ (पेसा यान करे कि जिस में) अपने छिद्रो को शत्रु न जाने परन्तु शा के जिद्रो को आप जाने । कञ्चचे के समान राजा अपने (राज्य सम्बन्धी) अङ्गो को गुप्त रक्खे और अपने छिद्र का संरक्षण करे। (१०५ से आगे १ पुस्तकमें यह श्लोक अधिकहै :- [न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेन । विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मृलादपि निमन्नति ॥] अविश्वासी पर विश्वास न करे, विश्वासी पर अति विश्वाम न करे क्योकि विश्वाससे उत्पन्न भव जड़से काट देता है) ॥१०॥ यकवचिन्नादन मिहनच पराक्रमे ।। वृकवचावलुम्पेत शशबच विनिष्पतेत् ॥१०॥ वगला सा अथों (प्रयोजनो) का चिन्तन करे और सिंह सा पराक्रम करे और वृक सा मार डाले और शशसा भाग जावो॥१०॥ एवं विजयमानस्य येस्य स्युः परिपन्थिनः । तानानयेद्वशं सर्वान्सामादिभिरुपक्रमः ॥१०७॥ पदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिमिः । दण्डेनैव प्रसह्य ताश्छनकैर्वशमानयेत् ॥१०॥ इस प्रकार विजय करने वाले राजा के जो विरोधी हो, उनके। सामादि उपायों से वश में करे ।।१७। यदि प्रथम के वीन (सान