पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३६६

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सममाऽध्याय ये कार्यिकम्यार्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः । तेषां सर्गस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम् ॥१२४॥ क्योंकि रता के लिय नियत राजा के नौकर प्रायः दूसरो के व्य को हरण करने वाले और कञ्चक होते हैं। गजा उन से इन प्रजाओं की रक्षा करे ।।१२।। जो पापबुद्धि कार्यार्थियों से प्रव्य हो प्रहण करते हैं उन सा रानामस्व हरण करके देशके बाहर निकाल वे ॥१२४|| राजा कर्मसु युकानां स्त्रोष प्रप्यजनस्य च | प्रत्यहं कल्पयेत् वृचि स्थान कर्मानुरूपतः ॥१२॥ पणो देयोऽकृष्टस्य पडुत्कृष्टस्य वेतनम् । पाएमासिकमयाच्या धान्यद्रोण मासिका१२६॥ राजा के काम में नियुक्त स्त्रियों और काम करने वाले पुरुषों की उन के कर्म के अनुसार पदवी और श्रुति सदा नियत किया करे (अर्थात घेवन में घटो वा बृद्धि नारि करे) ॥१२॥ निकृष्ट चाकर का वेतन एक पण (जो आगे कईो) दो ओर का महीने में दा कपड़े और एक महीने में द्रोण भर घान्य देने और उमट- उन्तम काम बाल काणा देवे (मध्ययको तिगुणा समकना ।। ५ पुस्तकों में तन-मक्तकम् पाठ है ) ||१२|| ऋयविक्रयमध्यान भक्तं च सपरिव्ययम् । योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजा दापयेत्कारान् ॥१२७॥ यथा फलेन युज्यत राजा कर्ता च कर्मणाम् । तथा वच्च नपारा कन्यत्सततं करान् ॥१२॥