पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ससमाऽध्याय . संपश्चयतः समृत्यस्य मास न तु जीवति ।।१४३।। चत्रियस्य पराधर्मः प्रजानामेव पालनम् । निर्दिष्टफलमोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ॥१४४॥ भृत्यों के सहित जिस राजा के देखते हुये चिल्लाती हुई प्रजा चोरी से लूटी आती है, वह राजा जीता नहीं, किन्तु मग है ॥१४॥ प्रजा का पालन ही क्षत्रिय का परम धर्म है । इस लिये अपने धर्म ही से राजा को फल भाग करना ठीक है ॥१४४|| उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः । हुनाग्निमिणाचार्य प्रविशेत्स शुभांसभाम्॥१४॥ तस्थितः प्रजाः सर्वाः प्रनिनन्ध विसर्जयेत् । विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सहमन्त्रिभिः ॥१४६।। ' (राजा) पहरमर के तड़के छठकर शौच (मुखमार्जन स्नानादि) कर, एकाग्रचित्त हे अग्निहोत्र और ब्राह्मण का पूजन करके सुन्दर सभा में प्रवेश करे॥१४५। उस समा में स्थित संपूर्ण प्रजा को निबटेरे से प्रसन्न करके विसर्जन करे, अनन्तर मन्त्रियों से (रानसम्बन्धी सन्धि विग्रहादि) मन्त्र (मलाह) करे ।।१४६|| गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासाद वा रहोगतः । अरण्ये निशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः ॥१४७॥ यस्य मन्वं न जानन्ति समागम्य पृथग्जनाः । स कृतम्नां पृथिवीं भुङ्क्ते काशहीनापिपार्थिव ॥१४८|| पर्वत पर चढ़कर बा एकान्त घर मे या वृक्ष रहित बन में व एकान्त में जहाँ मेद लेनेवाले न पहुँच सके मन्त्र करे ॥१४॥ .