पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७३

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३७० मनुस्मृति भाषानुवाद और कार्ड कहते हैं कि १ कापटिक २ उदासीन ३ ६ ४ गृहपनि ५ तापस, ये ५ प्रकार के बनावटी साधु वेप बनाये अन्य राजा की ओर से अन्य राजो का भेद जानने की फिरा करते हैं. उनके लिये वैस ही अपने यहां रक्खे ।। इसी भाव कर श्लोक नन्न की टीका में मिलते हैं:- [वने वनेचराः कार्याः श्रमणाटविकादय । परप्रवृत्तिज्ञानाथ शीघ्राचारपरंपराः ॥१ परस्य चैन वाव्यास्ताशेरेव तादृशाः । चारमंचारिणः संस्था, शाश्वारूढमश्रिताः ॥२) मध्यमस्य प्रचारं च विजिगीपोश्च चेप्टितम् | उदासीनप्रचारं च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः ॥१५॥ एताःअक्तयोमूलं मण्डलस्य समासतः । अप्टोचान्याः समाख्याता द्वादशैव तु ता स्मृता.१५६ १ मध्यम र जीतने की इच्छा करन वाजे ३ उदासीन और ४ शत्रु के प्रचार का प्रयत्न से (राजा विचारे) ॥१५५|| य चार प्रकृविया संक्षेप से मण्डल की मूल हैं और आठ अन्य कही गई हैं (इन४ के मित्र ४ और ४ के शव ४८)य सव चारह हैं ।१५६॥ अमात्यराष्टदुर्गार्थदण्डाख्या पंच चापराः। प्रत्येकं कथिता यता संक्षेपेण द्विसप्ततिः ॥१५७१ अनन्तग्मरिं विद्यादरिसेविनमेव च। अरेरनन्तरं मित्रमुदासीनं तयोः पम् ॥१८॥ अमात्य, देश, दुर्ग, कोश और दण्ड, ये पांच और भी .