पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७५

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मनुस्मृति मापानु41 . समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च । तदा त्वातिसंयुक्तः सन्धियोद्विलक्षणः ॥१६॥ स्वयंकृतश्च कायार्थमकाल काल एव वा । मित्रस्य वापकृत द्विाबंधोविग्रहः स्मत. ॥१६४॥ (तत्काल वा आगामी समय के फल लाम के लिये जहां उसो राजा के साथ किसी और राजा पर चढ़ाई की जाती है उसको) "समानयानकर्मा" सन्धि और ( "हम इम पर चदाई करेंगे तुम उस पर करो। इस प्रकार मेल कंटा रिन र राज्यो पर चढाई करने के लिये जो मेल किया जाता है उसको) 'असमानयानकमा कहते हैं। इन दो को दो प्रकार की मन्धि जान ॥१६॥ शत्रु जयरूप कार्य के लिये (शत्रु के व्यसनादि जानकर चित मार्ग शीर्पादि) काल वा विना काल में स्वयं युद्ध करना एक विमह और अपने मित्रके अपकार होनम (उसका नाका) जो युद्धहै सो दूसरा है, ऐसे) दो प्रकारका विमह कहा है ॥१६४|| एकाफिनश्चात्ययिक कार्य प्राप्ते यदृच्छया । संडतस्य च मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते ॥१६५॥ क्षीणस्य चैव क्रमशो देबाद पूर्वकतेन् वा । मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मतमासनम् ॥१६६॥ दैवयोग से अत्यावश्यक कार्य मे अकेला शत्रुपर चढ़ाई करना या मित्र के साथ होकर शव पर चढ़ाई करना यह ने प्रकार का 'यान (धावा) है ॥१६५ पूर्व जन्म के दुष्कृत से वा यही की बुराई से क्षीण राजा का चुप चाप बैठा रहना १ आसन है और मित्र के अनुरोध से चुपचाप बैठे रखना २ दूसरा ये दो प्रकार के आसन कहे हैं ॥१६॥