पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७६

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सप्तमाऽध्याय ३७३ बलस्य सामिनश्चैव स्थिति कार्यार्थसिद्धये। द्विविध कीर्त्यते दूध पाड्गुण्यगुणवेदिभिः ॥१६७॥ अर्थसंपादनार्थं च पीडयमानस्य गमिः । माधुप व्यपदेशार्थ द्विविधः संश्रयः स्मनः ॥१६॥ अर्थ सिद्धि के लिये कुछ सेना को एक स्थान पर स्थापित कर के.शेप सेना के साथ राजा दुगे मे रहे। यह दो प्रकार का वध पहरणच लोग कहते है।।१६। शओंसे पीड़ित राजाको प्रयोजन को मिद्धि के लिये किसी की शरण लेना और सज्जनो के साथ ज्वपदेश के लिये शरण लेमा (अर्थान् विना शत्र पोझ भी किसी बडे राना के आनय रहना, जिससे अन्य राजों को उम बड़े के आश्रय का मय रहे) ऐसे दो प्रकार का संश्रय कहा है ॥१६८। यदावगच्छेद्रायत्यामाधिक्य अत्रमात्मनः । तदात्वेचाम्पिकां पडांसदा सन्धि समाश्रयेत् ।।१६।। यदा प्रकृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रतीशम् । अत्युच्छित तथात्मानं नहा कुत्रीत विग्रहम् ।।१७०॥ जब भविष्यकाल में निश्चय अपना प्राधिकस जाने और वतमान समय में अल्प पीड़ा देख पड़, उस समर में सन्धि का आश्रय करे॥१६॥ जत्र (अमात्यादि) सत्र प्रकृति अत्यन्त बढ़ी हुई (उन्नत ) जाने और अपने को अत्यन्त बलिष्ठ देखे तव वि ह करें ॥१०॥ यदा. मन्येत भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम् । परस्य वपरीतं च तदा यायाद्रि प्रति ॥१७१॥