पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७७

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मनुस्मृति भाषानुवाद यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च । तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन् ॥१७२|| जब अपनी सेना हर्पयुक्त और (द्रव्यादि से)पुष्ट प्रतीतहों और शत्र की निर्वल हा तव शत्र के मामन जाव ॥१७१|| परन्तु जब बाहन ओर बल सं श्राप क्षीण हो तब धार २ शत्रुनो को प्रयत्न से शान्त करता हुवा आसन पर ठहरा रहे ॥१२॥

मन्येतारि यदा राबा सर्वथा बलवत्तरम् ।

तदा द्विवा बलं कृत्या साधयेकार्यमात्मनः ॥१७॥ यदा परबलानां तु गमनीयतमा भवेत् । तदा तु संश्रयेविन धामिकं वलिन नपम् ॥१७४१॥ जब लड़ाई मे राजा शत्रुत्रों को सर्वथा अति बलवान समझे तव कुछ सना क साथ आपल का आनय करे और शुक्र सेना लड़न का मोरचो पर रक्खें, इन दोनों प्रकार से अपना कार साधे ॥१७३|| जब शत्रु सेना की बहुत चढाई हो (और आप किले के आनय से भी न बच सके) तव शीत्र किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय (पनाह) लेवे ॥१७४।। । निग्रह प्रकृतीना च कुर्यायागरबलस्य च । उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्न यथा । १७५।। यदि तत्रापि संपश्येद्दोपं संश्रयकारितम् । सुयुद्धमेव तत्रापि निर्विशङ्कः समाचरेत् ॥१७६।। जो मित्र, प्रकृतियो का और अपने शत्रुओ के बल का निमह करे, उसका सदा सम्पूर्ण यत्ना से गुरुवत् सेवन करे ।।१७५॥ .