पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३७९

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मनुस्मृति भाषानुवाद यदा तु यानमातिष्टेरिराष्ट्र प्रति प्रभुः । तदाऽनेन विधानेन यायादरिपुरं शनैः ॥११॥ मार्गशीर्षे शुभे मासि यायायात्रा महीपतिः । फाल्गुनं वाऽथचत्रं वामासी प्रति यथावलम् ॥१८॥ जब राजा शत्रु के राज्य में जाने को यात्रा चढाई) करे तब इस विधि से धीरे २ शत्रु के राज्य में गमन करे (कि ) ॥१८१|| बैंसी अपनी सेना वा अन्य बल हो, तदनुसार शुभ मार्गशी अथवा फाल्गुन वा चैत्रके महीने में राजा यात्रा करे ॥१८॥ अन्येष्वपि तु कालेषु यदा पश्येद् धनं जयम् । तदा यायाद्विगृह्य व व्यसने चोत्थिते रिपाः ॥१८॥ कृत्वा विधानं मुले तु यात्रिकं च यथाविधि । उपगृह्यास्पदं च चाराम्सम्याग्विधाय च ॥१८॥ और दूसरे कानों में भी जब निधय जय समझे तय यात्रा करे चाहे तो अपनी ओर से ही युद्ध ठान कर अथया जव शत्रु की ओर से उपद्रव उठे ।।१८।। अपने राज्य और दुर्ग की रक्षा करके और यात्रा सम्बन्धी ठीक २ विधान करके डेरा तम्बू आदि लेकर और दूतो को मले प्रकार नियत कर (यात्रा करे) ॥१८४८ संशोध्य त्रिविधं मार्ग पविधं च बलं स्वकम् । सांपरायिक कल्पेन यायादरिपुरं शनैः ।।१८।। शत्रुसेविनि मित्रे च गृढे युक्ततरो भवेत् । गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरा रिपुः ॥१८६॥