पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३८३

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३८० मनुस्मृति भाषानुवाद अनित्योविजयो यस्मादृश्यते युध्यमानयोः । पराजयश्च संग्रामे तस्मायुद्धं विवर्जयेत् ॥१६॥ अयाणामप्युपायानां पूर्वोक्तानामसम्भवे । तथा युध्येत सम्पन्नो विजयेत रित्यथा ॥२००। (संग्राम मे) लड़ने वालों के जय पराजय अनित्य देखे जाते है। इस लिये (अन्य उपायों के होते) युद्ध न करें ॥१५॥ पूर्वोक्त तीनो उपायों से जय सम्भव न हो तो सम्पन्न (हम्ती अश्व आदिसे युक्त) जिस प्रकार शत्रुओको जीते, उसप्रकार लडे ।२००। जित्वा सम्पूजयेद्दवान्ब्रामणांश्चैव धार्मिकान् । प्रदयात्परिहारांच स्थापरेदभयानि च ॥२०१॥ सर्वेषां तु विदित्वेषां समासेन चिकीर्पितम् । स्थापयेचा तश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम् ॥२०२|| परराज्य को जीत कर वहां देवता और धार्मिक ब्राह्मणों का पूजन करे और उस देश वालो को परिहार (लड़ाई के समय जिन दीन पुरुषो की हानि हुई हो. उन के निर्वाहार्थ ) देवे और अभय की प्रसिद्धि करे ॥२०१॥ ( शत्रु राजा और ) उन सब के (मन्न्यादि के ) अभिप्राय को संक्षेप से जान कर उस (शत्रु) राजा के वंश मे हुवे पुत्रादि को उस गद्दी पर बैठावे और "यह करो यह न करो" तथा उस के अन्य विपयों के नियम (अहद) स्वीकार करावे ।।२०२|| प्रमाणानि च कुर्वीत तेपा धर्मान्यथोदितान् । रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह ॥२०३।।